ॐ का विज्ञान | ॐ का रहस्य क्या है? ॐ बोलने के फायदे Science of Om. What is the secret of Om? Benefits of saying Om
ॐ का विज्ञान | ॐ का रहस्य क्या है? ॐ बोलने के फायदे Science of Om. What is the secret of Om? Benefits of saying Om। श्वास का जन्म वायु तत्व से होता है। पर प्राण की परख शब्द संवेदना से करते हैं। प्राण आकाश तत्व से बनता है। इसीलिए नब्ज पकड़कर या आला लगाकर ब्लड प्रेशर की पड़ता है। प्राण की परख उस गति से करते हैं जो छत कंपन रूप में नसों में होती है। यानी प्राण का अनुभव सुनकर किया जाता है। तब तो प्राणायाम कान का विषय हो गया, जबकि श्वास नाक का विषय है । प्राण जीभ से नहीं, कान से श्रवण किया जाता है। जब कान का विषय है प्राण तो उसका संबंध ध्वनि से होगा, नाक से सुनते नहीं, सूंघते हैं।
प्राणायाम नादानुसंधान है। इसे ही शब्द साधना या सुरति शब्द योग कहते हैं । प्रणव करते हैं। यह प्राण का रव होता है । प्राण ही गाता है, नाक नहीं गाती, कंठ भी नहीं गाता, कठ केवल बोलता है। पर गाता है तो ध्वनि तरंग है। शब्द का योग है स्वर और स्वर का प्रयोग है संगीत अतः प्राणायामी स्वर की अनुगूंज से अपने को जोड़ता है। सभी मंत्र ध्वनि तरंगें हैं। मंत्र में वर्ण नहीं, स्फोट होता है। तरंगें कैसे उठाएं, यही सीखा जाता है प्राणायाम में ।
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इन्हीं ध्वनि तरंगों से चेतना अंतर्मुखी होती है। नाद तरंग है, प्राण स्पंदन है । लहर और कण समझें । प्राण में मंत्र डालना नहीं पड़ता । प्राण में मंत्र फूटते हैं । भीतर से ही फूटते हैं। प्रायः लोग श्वास क्रिया को ही प्राणायाम जानकर घंटों नाक रगड़ते हैं। पर यह भूल जाते हैं कि श्वास नियंत्रण तो नाड़ी शोधन है। यह प्राणायाम की पीठिका है-हजारों वर्षों से एक ही झूठ को दुहराया जा रहा है कि नाड़ी शोधन ही प्राणायाम है, जो जानकार हैं वे मौन हैं। प्राणयाम से हमारे अतीद्रिय शरीर में संतुलन आता है। श्वास तो प्राण की दादी है। श्वास से रक्त, फिर रक्त प्राण बनता है। ध्यान के दो रूप हैं- श्वास क्रिया और प्राण क्रिया ।
वैसे प्राण ही क्रिया है – श्वास क्रिया नहीं है स्वभाव है। आप चाहें या न चाहें श्वास चलती है, वह हमारे वश में नहीं है । पर प्राणायाम हमारे वश में है, करें या न करें । प्राणायाम आंतरिक स्वभाव है। प्राण हमारे वश में नहीं है । प्राणायाम हमारे वश में है। आप प्राणायाम नहीं करते हैं, फिर भी प्राण तो काम करता रहता है। प्राण दर्शन- स्पर्शन की चीज नहीं है। श्वास को आप ढो सकते हैं- महसूसते हैं । प्राण का रव ही प्राण का प्रमाण है। जिसे सूंघ कर नहीं बता सकते। नाड़ी की गति सुननी पड़ती है । प्राण की गति का पता ध्वनि तरंगों से चलता है । ये तरंगें ही मंत्र हैं।
इसे ही संत लोग गमगति और गायक सरगम कहते हैं। वेदों ने इसे प्रणव कहा । श्वास क्रिया से भाषा का संबंध है। प्राण क्रिया से ओंकार ध्वनि का संबंध है। भाषा के प्रयोग में मन दौड़ लगाता है। स्वर के प्रयोग में मन लंगड़ा हो जाता है । भाषा छोटी-बड़ी नहीं होती, पर स्वर विलंबित – द्रुत होता है। यह द्रुतविलंबिता प्राणायाम की चढ़ाई है।
मन अंतर्मुख होता है, तभी स्वराधान प्रारंभ होता है । स्वर मन को कैद कर लेता है । मंत्रोच्चार का अर्थ ही है कि मन कैद हो गया। पहले स्वरूप का ध्यान, फिर स्वर का संधान – जैसे शर-संधान में मन नहीं बचता । स्वर से मन के हटते ही राग भ्रष्ट हो जाता है। स्वर पढ़ने में संपूर्ण एकाग्रता होती है। यहां मन को स्थिर करना नहीं पड़ता। वह पटुवा ही जाता है। प्राण क्रिया में जीभ लगती ही नहीं है – ‘जिह्वा पर आवत नहीं’ इसीलिए नाड़ी शोधन करने वाले का मन स्थिर होता है।
उनका मन परवश होने लगता है। मन उनको परेशान नहीं करता है । प्राणायामी का मन आज्ञाकारी गुलाम होता है। यह प्रयोग करने वाले ठीक से समझते हैं । प्राणायामी पूछिए – भैया, मन कहां है तो हंसेगा, है ही नहीं । अजपा अमन का निरति है । प्राणायाम प्राण का निरति योग है । 65 प्राणायामी मन के फेर में नहीं रहता है। प्राण मन का राजा है। राजा के सामने जो गुलाम की स्थिति होती है, वही प्राणायाम में मन की गति होती है। प्राण की गोद में मन का जन्म होता है।
प्राण नहीं होगा तो तन में तो क्या मन होगा ?
मन मर जाता है तो भी प्राण रहता है तन में। लोग कोमा में, बेहोशी में, मूर्छा में होते हैं। मन वहां नहीं रहता है। क्या प्राण भी नहीं होता है ? प्राण के कारण मन का जन्म है। पर श्वास है भी तो मन भाग जाएगा । तन कहीं होगा, मन कहीं चला जाएगा। जो मन श्वास के आगे-पीछे चलता है वही प्राण के आगे पालतू बन जाता है । प्राण मन से बरियारा है। इसीलिए कहते हैं कि प्राण बांधो तो मन स्वतः बंध जाएगा। मन प्राण का सेवक है।
प्रणव का उद्घोष किया कि मन एक पांव पर हाथ जोड़ कर खड़ा हो जाता है। डांट खाए शिशु के समान। देवता बन जाता है। सुरति पर सवार हो जाता है । प्राणायाम की क्रिया बड़ी शक्तिशाली क्रिया 1 इसे गुरु के साथ ही करते हैं। श्वास क्रिया में चित्त नियंत्रित होता है, पर प्राण क्रिया में चित्त कमजोर पड़ जाता है । प्राणायामी को चित्त की चित्रकारी देखने की फुरसत नहीं होती है। मन की सारी चित्रकारी पर प्रणव पानी फेर देता है। यहां चित्त पूर्णतः निरुद्ध होता है । स्वर लगाकर देख लो – हाथ कंगन को आरसी क्या ? अब आपको लग रहा होगा कि श्वास और प्राण दो चीजें हैं।
श्वास आवर्तन को नाड़ी शोधन और प्राण संयम को प्राणायाम कहते हैं । तब ध्यान की परिभाषा बनी कि चेतना को शब्द से हटाकर स्वर पर लगा दो । स्वर को संतों ने शब्द कहा- यह याद रख लें। संतों के शब्द का अर्थ घोड़ा, गाय, बैल नहीं हैं। उनका शब्द ही प्रणव है। किसी संत से प्रमाण ले लो। मंत्रों का उच्चार सस्वर होता है-ध्वन्यात्म है। मंत्र वर्णात्मक नहीं है ।
प्राण की पहचान ही है रव, यानी ध्वनि तरंग और श्वास में न तो प्राण होता है न रव होता है। रेचक रेचक प्राण है-ये प्राण के खाद्य हैं। अगर पूरक और रेचक ही प्राणायाम है तो को आप यह तो नहीं कहेंगे कि प्राण निकल रहा है तो न तो पूरक प्राण है न यह तो हो ही रहा है तो उसे अब करना क्या ? नहीं, यह भूल है जो हजारों वर्षों से शास्त्रों में दुहराई जा रही है। जबकि प्राणायाम को छिपाकर रखा गया गमगिति में। जिन लोगों ने नाडी शोधन को प्राणायाम कहा- उन्हीं लोगों ने है, यहीं है और खो गया है।
दोनों बातें कहीं और लोगों की नींद नहीं टूटी। प्राणायाम को बीहड़ असाध्य विकट कहा। यह भी कहा कि प्राणायाम खो गया वे तो प्राणायाम करने से मना भी करते हैं-क्योंकि उन्हें पता है कि वे जो बता रहे हैं वह प्राणायाम नहीं है। दुकानदार की दुकान में जो माल नहीं होता है वह कह देता है कि आउट ऑफ मार्केट है। विद्वानों ने फंसा दिया श्वास- क्रिया में पर यह जाने नहीं कि मैं प्राणायाम नहीं जानता । मतलब बस इतना ही था । सौ बार दुहरा देने पर ही झूठ भी सत्य लगने लगता है । आज लाखों नाक दाबे प्राणायाम पर बैठे, आपको मिलेंगे। यह विचित्रता का देश है ।
नाड़ी शोधन होम्योपैथिक डोज है। फायदा नहीं होगा तो कोई घाटा भी नहीं होगा । प्राण ज्ञानवाही नाड़ियों का सूक्ष्म केंद्र है। प्राण ही भार विहीन प्रकाश है। इसमें गमक और चमक दो क्रियाएं हैं। यानी कंपन, थिरकन, आंदोलन है। गर्भ जैसे शिशु की बढ़त गोपनीय है, वैसे ही प्राणायाम की सुरति – निरति योग भी परम गोपनीय है।
कोई गुरुकृपा कर करा दे, इतनी नमनीयता से गुरु चरणों में विनीत होना है। प्राणायामी को कोई पहचान नहीं पाता। आप समझ मांगिए कि अपान में प्राण का, प्राण का अपान में और प्राण अपान का अन्य प्राणों में हवन कैसे होता है। कोई क्रिया देता है तो ठहर कर लें। इसके लिए विद्वान नहीं, योगी की तलाश कारगर होती है । उनचास प्राणों का ज्ञान वही देगा, विद्वान नहीं । यह तो नाक रगड़वाएगा।
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