प्राणायाम का अर्थ और परिभाषा | प्राणायाम के प्रकार और लाभ Meaning and definition of Pranayama. Types and benefits of Pranayama

प्राणायाम का अर्थ और परिभाषा | प्राणायाम के प्रकार और लाभ Meaning and definition of Pranayama. Types and benefits of Pranayama

 

प्राणायाम का अर्थ और परिभाषा | प्राणायाम के प्रकार और लाभ Meaning and definition of Pranayama. Types and benefits of Pranayama
प्राणायाम का अर्थ और परिभाषा | प्राणायाम के प्रकार और लाभ Meaning and definition of Pranayama. Types and benefits of Pranayama

प्राणायाम का अर्थ और परिभाषा | प्राणायाम के प्रकार और लाभ Meaning and definition of Pranayama. Types and benefits of Pranayama प्राणायाम है। एक खास विधि से श्वास की मूलाधार चक्र तक ले जाना (पुरक) कुछ काल स्थिर आसन पर बैठकर श्वासप्रश्वास की गति को रोकना ही प्राणायाम अकारण ही नहीं है। बहुत लंबे समय तक किए गए प्रयोगों एवं अनुभवों से रोकना (कुंभक) सत्पश्चात बाहर निकालना (रेचक) ही प्राणायाम है। यह खोज ज्ञात हुआ है। इस श्वास-प्रश्वास से किया जा सकता है। इस श्वास क्रिया से हम ज्यादा से ज्यादा ऑक्सीजन ग्रहण करते हैं तथा खास समय तक रोककर जलंधर भी करते हैं। जिससे शरीर के अंदर विजातीय वायु का दहन हैं। शरीर अत्यंत हल्का मन प्रसन्न हो जाता है।

कुण्डलिनी के चारों तरफ का होता है। जिसके परिणामस्वरूप शरीर से अनेक रोग अपने आप नष्ट हो जाते. मूल आवरण नष्ट हो जाता है। अतएव यह बहुत ही महत्वपूर्ण ऊर्जा है। हम बिना आंख, हाथ, पैर, जीम के जी सकते हैं, परंतु बिना श्वास के जीवन असंभव है। ई (यह) स्वर ही ईश्वर है। इसके पाठ प्रतियात से कुण्डलिनी जाग उठती है। ईश्वर के दर्शन मात्र से आदमी का जीवन ही बदल जाता है।

गुरु द्वारा प्रदत्त मंत्र जाप एवं चिंतन देह मन, इंद्रियों और अहंकार को पवित्र कर इन्हें रूपांतरित करते हैं। जिससे श्वास-प्रश्वास संतुलित प्राण समरस, मन शुद्ध और शांत तथा अहंकार विराट केंद्रित या व्यापक हो जाता है जिससे स्वतः आध्यात्मिक ध्यान सह अजपा दिव्य संगीत पैदा करता है। जिससे आध्यात्मिक मार्ग साफ होता है। सुप्त कुण्डलिनी जाग उठती है। उच्चतर चक्रों की तरफ प्रवाहित होने लगती है।

प्राणायाम विधि

सुषुम्ना नाड़ी को ठीक करना- साधक पद्मासन पर उत्तर दिशा में बैठकर मंत्रादि का अनुष्ठान कर गुरु का ध्यान करे तत्पश्चात मेरुदण्ड बिलकुल सीधा कर गरदन सीधी करे।

मुंह से तोते के चोंच की तरह वायु ले यानी पूरक करे, जिससे पूरक में शब्द भी निकलता है, तत्पश्चात कुंभक कर पेट को तीन बार चलावे, जिससे पेट के अंदर सारे विजातीय वायु का दहन हो एवं सुषुम्ना नाड़ी क्रियान्वित हो सके। तत्पश्चात मुंह से ही रेचक करे। एक बार पूरक कुंभक पर पेट को तीन बार चलावे तत्पश्चात रेचक नाक से करे। यह एक मात्रा होता है। इस तरह तीन मात्रा पहले करे। इंगला पिंगला एवं सुषुम्ना का शुद्धिकरण साधक पंच तत्व से निर्मित शरीर (तत्वों) का शोधन एवं इन नाड़ियों का शुद्धिकरण निम्न बीज मंत्र से करे। – वायु तत्व का प्रतीक है।

अग्नि तत्व का प्रतीक है। ठ-आकाश तत्व का प्रतीक है। वं जल तत्व का प्रतीक है। लं पृथ्वी तत्व का प्रतीक है। साधक सबसे पहले गुरु के निर्देशानुसार इंगला या पिंगला से प्राणायाम शुरू करे। मान लीजिए, साधक के शरीर में कुछ ऐसे रोग हैं जो सूर्य के द्वारा ही शमन होगा या साधक के शरीर में गरम की जरूरत है या ठंडे देश में है तो साधक को मध्यमा एवं अनामिका अंगुली से बाएं नासिका या पिंगला नाड़ी (चंद्र स्वर) को दबा दे तथा सूर्य स्वर यानी दायां अर्थात इंगला से श्वास ले 33 यानी पूरक करे।

पूरक करते समय यं (वायु तत्व) बीज मंत्र जाप 16 बार जाप करने में जो समय लगे उतने ही समय में पूरक की क्रिया पूर्ण कर ले। तत्पश्चात दाहिने ही हाथ के अंगूठे से सूर्य नाड़ी को बंद कर दे। अब 64 बार ‘य’ मंत्र का जाप करते हुए कुंभक करे। इस तरह जब कुंभक पूरा हो जाए तब 32 बार ‘ मंत्र का जाप करते हुए ही चंद्र स्वर यानी पिंगला से रेचक करे यानी वायु निकाले तत्पश्चात पुनःश्च इसी स्वर से ही 16 बार मंत्र का जाप पूरक तथा 64 मंत्र जाप से कुंभक एवं 32 बार में दायां यानी सूर्य स्वर इडा से रेचक करे। यह पूरी प्रक्रिया एक मात्रा कहलाती है।

इस एक मात्रा से वायु तत्व का शोधन तथा सूर्य नाड़ी का शोधन हो जाता है। ठीक उसी तरह आप ” बीज मंत्र से सूर्य स्वर (इड़ा) से ही 16 बार में पूरक, 64 बार में कुंभक तथा 32 बार में रेचक एवं पुनःश्च पूरक, कुंभक एवं रेचक कर एक मात्रा पूरा करते हैं इससे अग्नि तत्व एवं चंद्र नाड़ी का शोधन हो जाता है। सूर्य स्वर (इड़ा) से ही करे तथा 64 बार वं (जल तत्व) का जाप करते हुए कुंभक अब साधक (आकाश तत्व) बीज मंत्र से 16 बार जाप करते हुए पूरक करे एवं 52 बार (पृथ्वी) बीज मंत्र का जाप करते हुए चंद्र स्वर (पिंगला) से रेचक करे।

इसी तरह पुनः चंद्र स्वर से ” से 16 बार में पूरक, 64 बार से कुंभक, तथा 32 बार ” बीज मंत्र से इड़ा से रेचक करे। इससे आकाश सत्यं जल तल, पृथ्वी तत्व का शुद्धीकरण तथा सुषुम्ना नाड़ी का शोधन हो जाता है। 1 ही पूरक प्रारंभ करे। जिसके शरीर में ज्यादा गरमी हो या तुरंत क्रोध आता हो, जिस व्यक्ति को शीत संबंधी या पाचन प्रणाली रोग हो वह सूर्य स्वर से अपने क्रोध पर नियंत्रण करने में बार-बार असफल होता हो, वह चंद्र स्वर से पूरक कर प्राणायाम आरंभ करे। इससे चमत्कारिक परिवर्तन होगा। आपका क्रोध स्वतः नियंत्रित हो जाएगा। स्वभाव शांत हो जाएगा। |

कुंभक से शरीर के अंदर की विष युक्त विकार या वासना का होता है जिससे शरीर का हर रोम खुल जाता है। पसीना बाहर जाता है। रेचक से दूषित वायु के रूप में शारीरिक विकार, मानसिक विकार जिसे हम जन्मों से छिपाकर रखे हैं, बाहर निकलता है हमारा तन-मन विकार मुक्त होता है जिससे हम यशस्वी बनते हैं जो हम श्वास लेते हैं, वह केवल ऑक्सीजन ही नहीं होती बल्कि प्राण होता है वह वायु प्राण का वाहन है।

प्राण को लेकर अंदर जाता है जिसे अंदर हृदय, फेफड़ा ग्रहण कर लेता है। शेष वायु को अंदर के विकार के साथ वापस है। कर देता है। यही प्राण जीवन का आधार है, अमृत जिस व्यक्ति में जिस मात्रा में प्राण संचित है, वह उतना ही आध्यात्मिक रूप से समृद्ध होगा। प्राण ही पुण्य है।

प्राणवान साधक ही दूसरे में प्राण फूंक सकते हैं। जैसे ही आप नख से शीर्ष तक प्राण से भर जाते हैं आपकी कुण्डलिनी शक्ति अधः से उर्द्ध की तरफ गमन कर जाती है आपका शरीर हल्का हो जाएगा। आसन पर बैठते ही आप जमीन से ऊपर उठ जाएंगे। फिर आप रहस्यमय लोक की यात्रा में निकलने के लिए उचित पात्र बन जाएंगे।

सावधानी

साधक प्रत्येक स्वर पर सवार होकर मंत्र के साथ मूलाधार चक्र पर आयात करेगा। जहां कुण्डलिनी सोई हुई है।

कल्पना करें कि प्रत्येक श्वास के घात प्रतिघात का आघात सीधे मूलाधार चक्र पर हो रहा है तथा ध्यान मूलाधार चक्र पर ही रहे, जलंधर एवं खेचरी मुद्रा में अवस्थित रहें। जब यह तीन मात्रा पूरा हो जाता है तब साधक ” बीज मंत्र का ही प्रयोग करें। जैसे इड़ा से “” बीज मंत्र का जाप करते हुए 16 बार में पूरक करें एवं 64 बार में कुंभक तथा 32 बार ” जाप करते हुए रेचक करें इसी तरह पुनःश्व पिंगला से 16 बार में पूरक, 64 बार में कुंभक 32 बार रं बीज मंत्र का जाप करते हुए रेचक करें। यह एक मात्रा हुआ। प्रथम दिन साधक कम से कम 12 मात्रा से प्राणायाम शुरू करें। इस मात्रा में पूर्व का शोधन नहीं आता है 12 मात्रा पूर्ण होने पर धीरे-धीरे क्रमशः इसे बढ़ाया जाता है प्रतिदिन एक मात्रा बढ़ा दिया जाए।साधक को 36 से 92 मात्रा तक खींचकर ले जाना चाहिए।

देश, काल एवं परिदृष्ट

देश से देखा हुआ या नापा हुआ वानी पूरक श्वास को अंदर ले जाते वक्त ध्यान श्वास पर तथा मूलाधार चक्र पर श्वास का आघात करना है। कुंभक- श्वास पूरा अंदर भरकर नाभि चक्र में रोककर जलंधर कर स्थित रहना है एवं ” मंत्र का पूर्ववत जाप करते रहना है। प्रत्येक साधक की उन्नति उसकी पात्रता की स्थिति पर निर्भर करती है। यह विकास सीधी रेखा में नहीं होता है।

एक उच्चतर केंद्र पर पहुंचने के बाद मार्ग बंद हो जाता है जिससे साधक की शक्ति दूसरी दिशा में प्रवाहित होने लगती है। पुनः मार्ग पाने के 35 लिए गुरु के सान्निध्य की आवश्यकता होती है। कभी-कभी साधक बिना उन्नति किए एक ही स्थान पर बहुत दिनों तक घूमता रहता है।

इसे ही आत्मा की अंधकार रात्रि (Dark Night of the Soul) कहते हैं। इसे गुरु भक्ति निष्कर्म ज्ञान के समन्वय से पार किया जा सकता है। रेचक 1 1 श्वास को धीरे-धीरे निकालना है। यह श्वास क्रिया एक खास निश्चित अवधि के अंदर पूरी होनी चाहिए, इसका अनुपात 1:4:2 (16 बार मंत्र जप, [64] तथा 52 बार सदैव बना रहे। इस तरह पूरक, कुंभक, रेचक के देश काल एवं संख्या के परिमान से लंबा सक्ष्म होता चला जाता है।

साधक पूरक करते समय श्वास इतना धीरे-धीरे ग्रहण करे कि जरा-सी भी आवाज नहीं करे, जिस तरह चौटी के चलने की आवाज नहीं सुनाई पड़ती है।

रेचक

भी इतना धीरे-धीरे करे यानी श्वास का त्याग करे कि नासिका के 12 अंगुल आगे जाकर ही समाप्त हो जाए। यदि 12 अंगुल पर श्वास समाप्त होता है तो उसे दीर्घ सूक्ष्म माना जाता है एवं जब साधक श्वास को देख लेता है तथा वह श्वास दो अंगुल यानी ऊपर वाले होंठ तक ही समाप्त हो जाता है तो उस योगी के लिए इस त्रिलोक में कुछ भी असंभव नहीं रहता।

उसकी इच्छा मृत्यु होती है। वह योगी ऋद्धि-सिद्धि का स्वामी बन जाता है। बहुत साधक इसी जगह जन्म भर फंस स्थिति आम ज्ञान के लिए अत्यंत बाधक है। अतएव श्वास के पूरक, रेचक कर रह जाते हैं। वह दुनिया के सामने चमत्कारी बाबा बन जाते हैं। परंतु यह है तब वह मूलाधार चक्र से ऊपर मस्तिष्क तक पहुंच जाता है।

‘अब साधक पर विशेष ध्यान देना है। कुंभक में साधक जब नाभि प्रदेश में श्वास को रोकता अंदर के अनंत का मुक्त प्रकाश को देखता है। यह श्वास नाभि प्रदेश में जब स्थिर महसूस हो तब साधक का भी सूक्ष्म समझा जाता है। से कम 56 मात्रा तक बढ़ा से जाते हैं, श्वासप्रश्वास की गति सम हो जाए तब प्राणायाम दीर्घ सूक्ष्म माना जाता है। साधक जब 92 मात्रा तक निश्चित होकर इस तरह जब प्राणायाम धीरे-धीरे अधिक समय तक बढ़ता है तथा कम कर लेता है तब प्राणायाम दीर्घ सूक्ष्म कहलाता है। प्राणायाम के बल से कई स्वाभाविक श्वास-प्रश्वास एक श्वास बन जाता है। इस तरह 12 श्वास- प्रश्वास एक श्वास बनने लगता है। तब प्राणायाम पूर्णता की तरफ पहुंचा जाना जाता है।

36 वायु का स्थान एवं मिलन इस तरह प्राण वायु का निवास स्थान हृदय है तथा अपान वायु का मूलाधार चक्र और समान वायु का नाभि प्रदेश है पूरक क्रिया में प्राण समान से नीचे आकर अपान से मिल जाता है और रेचक क्रिया में अपान से ऊपर जाकर प्राण से मिल जाता है योगी जन अपान का प्राण से मिलना ही प्राणायाम कहते हैं। इसका मिलन अपने आप में अत्यंत चमत्कारिक घटना है।

प्राणायाम में बंध का उपयोग साधक प्राणायाम में आंख बंद कर या गुरु मूर्ति पर त्राटक कर खेचरी मुद्रा करके ही प्रारंभ करे जैसे ऊपर भी उल्लेख किया जा चुका है। शरीर को तानकर नहीं रखना है बल्कि शरीर बिलकुल सीधा मेरुदण्ड बिलकुल सीधा रहे रेचक क्रिया में पेट को पीठ से मिला दे जिसे उड्डीयान बंध कहते हैं।

पूरक एवं कुंभक के समय जलंधर बंध लगाकर वायु को अंदर रोकना है। रेचक के समय जलंधर बंध खोल देना चाहिए ये बंध एवं मुद्रा योगी जन के लिए बहुत ही लाभदायक है। अतएव यह गुरु से सीख ले। यदि साधक उपरोक्त क्रिया के साथ अनाहद पर भी ध्यान दे तो अत्यंत उत्तम है परंतु अनाहद क्रिया के विषय में गुरु से परामर्श लेना भी न भूलें क्योंकि साधक एक साथ क्या-क्या करने में समर्थ है, कितनी पात्रता है यह गुरु ही समझ पाता है। समर्थ शिष्य एक साथ अनाहद, खेचरी, त्रिबंध, अजपा एवं ध्यान पांचों करने में समर्थ होते हैं। साधारण को एक-एक कर साधना ही उचित है यह कार्य अत्यंत धर्मवग्न एवं नम्र एवं गुरु भक्त के लिए सुलभ है।

प्राणायाम सिद्धि

जब साधक का शरीर प्राणायाम करते-करते अत्यंत हल्का हो जाए। मन प्रसन्न रहे। चित्त वृत्तियां शांत हो जाएं साधक अपने आसन से प्राणायाम के समय ऊपर उठ जाए तो प्राणायाम सिद्ध माना जाता है। शरीर के अंदर ज्यादा से ज्यादा प्राण ग्रहण किया जाता है जिससे अन्य विजातीय द्रव्य एवं वायु नष्ट हो जाते हैं। जिससे साधक का शरीर हल्का हो जाता है। पित्त, कफ, वात अपने अनुपात में हो जाता है जिससे साधक का शरीर स्वस्थ्य एवं निरोग्य 37 को प्राप्त कर लेता है।

साधक प्राणायाम सिद्ध कर लेता है। इड़ा गंगा पुराप्रोक्ता पिंगला चार्क पुत्रिका । मध्या सरस्वीता प्रोक्ता सांसांगोऽति दुर्लभः । इड़ा गंगा है, पिंगला जमुना है। मध्य में सुषुम्ना सरस्वती है, यही त्रिवेणी संगम है, जिसका स्नान अति दुर्लभ है। यह वाक्य सदाशिव का है। इसमें स्नान मात्र से योगी योग युक्त हो जाता है जन्मों के पापों से छुटकारा मिल जाता है।

इस संगम पर मानसिक स्नान भी किया जाता है। जिससे साधक पाप मुक्त होकर सनातन ब्रह्म में लीन हो जाता है। अतएव यह सब क्रिया भी प्राणायाम काल में ही साधक को सीख लेना श्रेयस्कर है इसे सद्गुरु कबीर कहते हैं- “त्रीकुटी संगम झलकत हीरा, चरण चित्त तह रख कबीरा।। ” यहां चित्त स्वतः रुक जाता है। मन इसी प्रदेश में रमण करने लगता है।

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